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________________ आर्थिक और राजनैतिक पक्ष उभरकर सामने नही आ पाया है। दूसरे शब्दो मे धर्म आत्म-परिष्कार तक ही सीमित रहा है और समाज-सुधार तथा देशोद्धार मे उसकी प्रभावकारी भूमिका को रेखाकित नहीं किया गया है। ५. धर्म को श्रद्धा और विश्वास के रूप में ही प्रतिपादित किया गया है। तर्क, प्रयोग और परीक्षण की स्थितियो से उसका सम्बन्ध जोड कर उसकी बौद्धिक, ताकिक और वैज्ञानिक पद्धति से विवेचना नही की गई है। प्रमुखत उपर्युक्त पाँच कारणो से युवा वर्ग धर्म के प्रति असहिष्णु और अनास्थावान बना दीखता है। पर यदि धर्म को सही परिप्रेक्ष्य में उसके सम्मुख प्रस्तुत किया जाय तो वह धर्म की तेजस्विता और प्राणशक्ति का सर्वाधिक लाभ उठा सकता है। इस स्थिति को लाने के लिये हमे युवा वर्ग के समक्ष धर्म को निम्नलिखित बिन्दुओ के रूप मे प्रस्तुत करना होगा १ धर्म परम्परा से प्राप्त श्रद्धा या विश्वास मात्र नही है। धर्म अपने मे शाश्वत सिद्धान्तो को समेटे हुए भी समसामयिक सन्दर्भो से जीवनी शक्ति ग्रहण करता है और इस अर्थ मे वह अन्धविश्वासो तथा रूढ मान्यताओ के प्रति विद्रोह प्रकट करता है । इस दृष्टि से धर्म जीवन मूल्य के रूप में उभरता है। वह भोग के स्थान पर त्याग को, सचय के स्थान पर सयम को और सघर्प के स्थान पर सहयोग व सेवाभाव को महत्त्व देता है। २ धर्म किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए नही वरन् अपने मे छिपे देवत्व को (आत्मगणो को) प्रकट करने की साधनात्मक प्रक्रिया है। अहिंसा, सयम और तप की आराधना से, प्रात्मशक्ति को आच्छादित या बाधित करने वाले तत्त्वो को हटाया या नष्ट किया जा सकता है। ३ धर्म के दो स्तर है-वैयक्तिक और सामाजिक । वैयक्तिक स्तर पर धर्म व्यक्ति के सद्गुणो को जागृत और विकसित करने के अवसर प्रदान करता है। क्रोध को क्षमा से, अहकार को विनय से, माया-कपट को सरलता से और लोभ को सन्तोष से जीतने की भूमिका प्रस्तुत करता है । सामाजिक स्तर पर ग्राम धर्म, नगर धर्म और राष्ट्र धर्म की परिपालना करते हुए लोककल्याण के लिए जीवन समर्पित करने की प्रेरणा देता है। १२२
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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