SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म के दो आधार हैं-(१) चिरन्तन और (२) सामयिक । दोनो एक दूसरे के पूरक हैं । चिरन्तन आधार प्रात्म-गुणो से सम्बन्धित है और सामयिक आवार समसामयिक परिस्थितियो का परिणाम है । देश और काल के अनुसार यह परिवर्तित होता रहता है। ग्राम धर्म, नगर धर्म, राष्ट्र धर्म, सघ धर्म, सामयिक आधार पर अपना रूप खडा करते है और चिरन्तन आधार से प्रेरणा व शक्ति लेकर जीवन तथा समाज को सन्तुलित-सयमित करते हैं। दोनो आधारो से धर्म चक्र प्रवर्तन होता है। जैन दर्शन इन दोनो आधारो को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार यथायोग्य स्थान और महत्त्व देता है। व्यक्ति अनन्त शक्ति और निस्सीम क्षमताओ का धनी है। धर्म की सम्यक् आराधना उसकी शक्ति और क्षमता को शतोमुखी बनाती है जवकि धर्म की विरावना उसे पतित करती है। मसार मे चार वाते अत्यन्त दुर्लभ कही गई हैं-मनुष्य जन्म, शास्त्र-श्रवण, श्रद्धा और सयम मे पराक्रम । आज मनुष्य जनसख्या के रूप मे तीव्रगति से वढते जा रहे है पर मनुप्यता घटती जा रही है। मनुष्य जन्म पाकर भी लोग सत्सग और विवेक के अभाव मे हीरे से अनमोल जीवन को कौडी की भांति नष्ट किये जा रहे हैं । यही कारण है कि जीवन और समाज मे नैतिक ह्रास और सास्कृतिक प्रदूपण वढता जा रहा है । इसे रोकने का उपाय है-सम्यक् जीवन दृष्टि का विकास और विवेक पूर्वक धर्म-आचरण, कर्तव्य पालन । किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि आधुनिकता और वैज्ञानिक युग धर्म के लिये अनुकल नही है या वे धर्म के विरोधी है। सच तो यह है कि आधुनिकता ही धर्म की कमोटो है। धर्म अन्धविश्वास या अवसरवादिता नही है। कई लोकसम्मत जीवन आदश मिलकर ही धर्म का रूप खडा करते हैं। उसमे जो अवाछनीय रूढि तत्व प्रवेश कर जाते हैं, आधुनिकता उनका विरोध करती है। आधुनिकता का धर्म के केन्द्रीय जीवन-तत्त्वो से कोई विरोध नही है। आज के इस आपाधापी के युग मे मवसे बड़ी आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के केन्द्रीय जीवन तत्त्व यथा इन्द्रिय निग्रह, मंत्री, करुणा, प्रेम, सेवा, सहकार, स्वावलम्बन, तप, सयम, परोपकार आदि सुरक्षित रहे। उन पर अन्धविश्वास, सकीर्णता और रूढियो की जो गर्द छा गई है, उसे हटाने मे हमे किंचित भी सकोच (११)
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy