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________________ है, इसमे विखराव नही, भराव होता है, इससे व्यक्ति उत्तेजित नही, सवेदनशील बनता है । 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा गया है अह पहिं गणेहि, जेहि सिक्खा न लन्भई । थम्मा, कोहा, पमाएणं, रोगरगालस्सएण य ॥१३॥ बर्यात् अहंकार, जोध, प्रमाद, रोग और आलस्य इन पाँच कारणो से शिक्षा प्राप्त नहीं होती और जो शिक्षित नहीं होता, वह अनुशासित भी नही हो सकता। इसीलिये विनय को शिक्षा, धर्म और अनुशासन का मूल कहा गया है। अनुशासन व्यक्तित्व के विकास में बड़ा सहायक होता है। व्यक्तित्व के विकास का एक प्रमुख तत्त्व है-आत्म निरीक्षण, अर्थात् अपने दोपों के प्रति सजगता और दूसरों के गुरगो के प्रति प्रमोद भाव । जब व्यक्ति अपने शासन को या समाज की व्यवस्था को अथवा राज्य के कानून को तोड़ता है तो उसके व्यक्तित्व में जगह-जगह छिद्र बन जाते हैं, उन छिद्रों को रोकने का मार्ग है-अपने दोषों की आलोचना करना और भविष्य में उनकी पुनरावृत्ति न हो, इसका संकल्प करना। इस प्रकार प्रायश्चित अर्थात पापो की शुद्धि करने से व्यक्तित्व निखरता है और आत्मवल का विकास होता है । यह सब अनुशासनवद्धता का ही परिणाम है । अत. कहा जा सकता है कि अनुशासन का पालन वही व्यक्ति कर सकता है, जिसमें भोगों के प्रति विरति के साथ आन्तरिक वीरत्व का सम्वल हो। इस प्रान्तरिक वीरत्व को जाग्रत करने के लिये व्यक्ति का अप्रमादी होना पहली शर्त है। साधक को सचेत करते हुए कहा गया है-उन्किए रणोपमायए-उठो प्रमाद मत करो। जहां-जहाँ प्रमाद है वहाँ-वहाँ विवाद और मूर्छा है। आत्म-जागरण द्वारा इस मूर्छा को तोड़ा ना सक्ता है। संक्षेप मे अनुशासनवद्ध होने का अर्थ है, अपने आन्तरिक वीरत्व से जुड़ना, चेतना के स्तर को ऊध्वमुखी बनाना और प्राणिमात्र के प्रति मैत्री-सम्बन्ध स्थापित करना । १-वम्नन्त विणो मूल-दशवकालिन ६/२/२ 00. १०८
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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