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________________ - शिक्षा और स्वाध्याय अकर्म भूमि से कर्म भूमि मे प्रवेश कर मनुष्य ने असि, मसि, कृपि जैसे शिल्प और उद्योग का सहारा लेकर जीवन यापन प्रारम्भ किया, इससे प्रकृति निर्भरता छूटी और आत्मनिर्भरता पायी । यह आत्मनिर्भरता बहिर्मुखी थी, शरीर और इन्द्रियो तक सीमित थी। इसे अन्तर्मुखी बनाने के लिये अहिंसा, सयम और तप रूप धर्म की देशना दी गई। कहना चाहिये, यही से शिक्षा का सच्चा स्वरूप उभरा। पशु और मनुष्य की कुछ सहजात वृत्तिया है, जिन्हे 'सज्ञा' कहा गया है । यथा-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह । ज्यो-ज्यो इन सज्ञानो से परे होकर चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है, त्यो-त्यो मनुष्यता का विकास होता है । मनुष्यता के विकास करने की प्रक्रिया का नाम ही शिक्षा है । इसी दृष्टि से 'सा विद्या या विमुच्चए' कहा गया है। विद्या वह है जो व्यक्ति को बधनो से मुक्त करे । व्यक्ति के बधन उसकी विकृतिया और कमजोरिया हैं, जिन्हे कषाय कहा गया है। राग और द्वष मल कषाय है जिनके उदय से आत्मा की मौलिक शक्तियाँ नष्ट या आवृत्त हो जाती है । सच्ची शिक्षा इन आवरणो को हटाकर मौलिक प्रात्मशक्तियो को प्रस्फुटित करती है । इस अर्थ मे शिक्षा चरित्र की सज्ञा धारण करती है । मोटे तौर से शिक्षा के दो स्वरूप है-एक जीवन-निर्वाहकारी शिक्षा और दूसरी जीवन निर्माणकारी शिक्षा । विज्ञान और तकनीकी के विकास के साथ-साथ ज्ञान के क्षेत्र मे मुद्रण आदि के जो आविष्कार हुए है, उनसे जीवन निर्वाहकारी शिक्षा अत्यन्त व्यापक और सुलभ बनी है । इससे ज्ञान-विज्ञान की विविध शाखाओ का अध्ययन और जगत् के रहस्यो को जानने की क्षमता-लालसा बढी है । इन्द्रियो के विषय-सेवन के क्षेत्रो ६६
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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