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________________ - अपनी बात जैनदर्शन विश्व के प्राचीनतम दर्शनो मे से है। अन्य कई दर्शनकाल-प्रवाह मे विलीन हो गये, पर जैनदर्शन की अविच्छिन्न धारा आज भी प्रवहमान है और उसमे निहित जीवन मूल्यो के साधक चतुर्विध सघसाधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप मे विद्यमान हैं। इससे यह स्पष्ट है कि जैनदर्शन मे ऐसे तत्त्व हैं जिनकी प्रासगिकता ज्ञान-विज्ञान के इस विकसित युग मे भी वरावर बनी हुई है। आधुनिक जीवन और सभ्यता का जिस तौर-तरीके से विकास हुआ है, उसने धर्म के साथ जुड़े हुए प्रतिगामी मूल्यो को झकझोर दिया है। उससे यह समझा जाने लगा है कि धर्म अतीत जीवन का व्याख्यान और भविप्य की स्वप्नदर्शी कल्पना मात्र है, वर्तमान जीवन के साथ उसका सीधा सरोकार नहीं है और ज्ञान-विज्ञान के स्तर पर जो आधुनिक दष्टि विकसित हुई है, धर्म के साथ उसका तालमेल नही है, पर ऐसी सोच और समझ भ्रामक है। इस भ्रम के निवारण के लिये आधुनिकता और धर्म के स्वरूप को सही परिप्रेक्ष्य मे समझना आवश्यक है। आधुनिकता को दो रूपो मे समझा जा सकता है। एक तो समय सापेक्ष प्रक्रिया के रूप मे और दूसरा विभिन्न प्रभावो से उत्पन्न चेतना के रूप मे। पहले रूप मे आधुनिकता कालवाची है जो परिवर्तन और विकास की सरगियो को पार कर काल-प्रवाह के साथ आगे बढती है। इस स्थिति मे हर अगला क्षण अपने पूर्ववर्ती क्षण की अपेक्षा आधुनिक होगा और इस प्रक्रिया मे परम्परा आधुनिकता से जुडी रहेगी, उससे कटकर एकदम अलग नही होगी । दूसरे रूप मे आधुनिकता भाववाची है, विभिन्न प्रभावो से उत्पन्न चेतना रूप है। इसका सम्बन्ध मूल्यवत्ता से है। आधुनिक काल-खण्ड मे रहते हुए भी कई वार व्यक्ति इस मूल्यपरक चेतना को ग्रहण नहीं कर पाता। जैनदर्शन मे यह चेतना समानता, (६)
SR No.010213
Book TitleJain Darshan Adhunik Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1984
Total Pages145
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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