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________________ जैन-दर्शन की पूर्णता हो जाती है । यह चौदहवे गुणस्थान में ही होता है । यह चौदहवें गुणस्थान का काल इ उ ऋ लृ ये पांच लघु घर जितने समय में बोले जाते हैं उनना काल है। तथा इस गुणस्थान के अंत में यह ध्यान होना है तथा गुणस्थान का काल पूर्ण होने पर उसी समय मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार यह चौथा शुक्रव्यान मोचा साक्षात् कारण है । इस प्रकार दोनों प्रकार के तपारण का निरूपण किया | वह दोनों प्रकार का पारण न यात्रव होने देता है न बंब होने देता है तथा कर्मोकी निर्जरा करता हुआ मोच प्राप्त करा देता है । इस प्रकार तपारण का स्वरूप बतलाकर सकत चारित्र का स्वप समान किया । मुनियों के गुग गुण दो प्रकार के हैं—एक मूल गुण और दूसरे उत्तर गुरु । मुनियों को मूलगुण दो अवश्य पालन करने पड़ते हैं। मूलगु के बिना मुनि, मुनि नहीं कहला सकते | इसलिये नृलगुणों का पालन करना अत्यावश्यक है | उत्तरगुण ययासाव्य शक्ति के अनुसार पालन किये जाते हैं। मूलगुण श्राईस हैं तथा उत्तर गुण चौरासी लाल हैं। पांच महात्र, पांच समिति, पांचों इन्द्रियों को दमन, छह श्रावश्यक नग्न रहना, खडे होकर आहार लेना, दिन में एक ही बार थाहार लेना, केश लांच करना, जानका सर्वया त्याग, दंत धावनका सर्वथा त्याग और भूगावत करना ।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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