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________________ - - - - - - - जैन-दर्शन उपचारविनय-गुरु के आने पर उठना, सामने जाकर लाना, हाथ जोडना बंदना करना, पीछे चलना आदि सब उपचार विनय है । गुरुके परोक्षमें भी मन वचन काय से उनके लिये हाथ जोडना, उनके गुण स्मरण करना, गुणोंका कहना उपचार विनय है। इस विनय तपको धारण करने से ज्ञानका लाभ होता है, आचरणों की विशुद्धता होती है और श्रेष्ठ आराधनाओं का पालन होता है । इस विनय का स्वरूप कहा । अव आगे वैयावृत्य को कहते हैं। चैयावृत्य शरीर की चेष्टा से या अन्य किसी प्रकार से गुरुयों की सेवा सुश्रुषा करना, पांव दावना, उनके अनुकूल अपनी प्रवृत्ति रखना आदि वैयावृत्य है । यह वैयावृत्य विचिकित्सा या ग्लानि दूर करने के लिये, साधर्मियों से अनुराग चहाने के लिये और समाधि धारण करने के लिये, किया जाता है । मुनि दश प्रकार के होते हैं इसलिये उन सबकी वैयावृत्य करना दश प्रकार का वैयावृत्य है। वे दश प्रकार के मुनि इस प्रकार हैं। आचार्य-जिनसे दीक्षा ग्रहण की जाय व्रत ग्रहण किये जाय उनको प्राचार्य कहते हैं। उपाध्याय-जिनसे पागम का अभ्यास किया जाय उनको उपाध्याय कहते हैं। • तपस्वी-अनेक महा उपवास करने वालों को तपस्वी कहते हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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