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________________ जैन-कोन धारणकर आत्माको पवित्र करते हैं । इस शोके अनेक भेद हैंग्या अपने ग पर के जीवनका लोभ न करना, आरोग्य का लोम न करना, इन्द्रियों का लोभ न करना और भोग आदिका तोम न करना। उत्तन सत्य-सनन पुन्मों के लिये श्रेष्ट वचन कदना सत्य है अथवा भूठ बोलने का सर्वथा त्याग कर देना सत्य है ! भूल बोलने वालेको कुटुन्वी तोग भी तिरस्कार के टिसे देखते हैं, मित्र बोड देते हैं तया जिवाच्छेदन आदि अनेक प्रकारके दुख उन्हें भोगने पड़ते हैं। उत्तन संयन-इन्द्रियोंका दमन करना तथा प्राणियों की रक्षा करना संबन है। इसके दो भेद है-उपेक्षा संयम और अपहन संयम ! राग द्वेषचा सर्वया त्याग करना ना संयम है और जीवों की रक्षा करना अत संयम है। अथवा इन्द्रियों के विषयों में राग नहीं करना इन्द्रिय संयम है और प्राणियों की रक्षा करना प्राणिसयन हैं। इस संसार में संयम ही आत्माचा हित करने वाला है, संयम से ही मनुष्य पूख्य गिना जाता है तथा परलोक में मी उत्तन गति प्राप्त होती हैं! असंयनी जीव सदा पाप कर्म आर्जन करते रहते हैं । यही समन्कर मुनिराज उत्तम संयम धारण करते हैं। उत्तन तप-कनांचा नाश करने के लिये तपश्चरण करना तय हैं ! तपश्चरण करने से समस्त पदार्थों की सिद्धि होती है तपश्चरण
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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