SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन ३३] पुसलिये वह ज्ञान न तो सम्यग्ज्ञान है और न उससे आत्माका यथार्थ कल्याण होता है। आत्माका कल्यागा तो उसी ज्ञान से हो सकता है जिसमें कि आत्मा का श्रद्धान शामिल है। उस सम्यग्ज्ञान के चार भेद हैं-११) प्रथमानुयोग, (२) करणानुयोग, (३) चरणानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुपों के जीवन चरित्र को कहने वाला ज्ञान या पुण्य-पाप के स्वरूपको कहने वाला ज्ञान प्रथमानुयोग कहलाता है। लोक, अलोक, ऊर्द्धलोक, मध्यलोक, अधोलोक और उनमें होने वाली नरक, तियेच, मनुष्य, देव प्रादि गतियों को निरूपण करने वाला ज्ञान करणानुयोग कहलाता है । मुनियों के आचरणों को या मुनियों के व्रतों को तथा श्रावकों के आचरण या व्रतोंको निरूपण करने वाला ज्ञान चरणानुयोग कहलाता है। तत्त्वों के स्वरूपको, पदार्थी के स्वरूपको और द्रव्यों के स्वरूपको निरूपण करने वाला ज्ञान द्रव्यानुयोग कहलाता है। इन्हीं चारों ज्ञानों को चार वेद कहते हैं। अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान और कंवलज्ञान इस प्रकार ज्ञान के पांच भेद हैं। आगे इनका थोडासा " स्वरूप बतलाते हैं। ' जो नान पांचों इन्द्रियों से तथा मनसे उत्पन्न होता है उसको मंतिज्ञान कहते हैं। विचार करना, स्मरण करन', पहले देखे हुए किसी पदार्थको दुबारा देखकर " यह वही है या वैसा हो है। इसे
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy