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________________ जैन-दर्शन ३१] मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृतिमिथ्यात्व और अनंत तु बंधी क्रोध मान माया लोभ ये सात प्रकृतियां हैं। इन सातों प्रकृतियों के उपशम होने से उपशम सम्यग्दर्शन होता है। यद्यपि यह सम्यग्दर्शन निर्मल होता है तथापि वे सातों प्रकृतियां आत्मा में विद्यमान रहती हैं-नष्ट नहीं होती, केवल शांत होज ती हैं, उदयमें नहीं आती हैं। परंतु सम्यग्दर्शन के प्रकट होने के अनंतर अंतर्मुहूर्त्त बाद ही उदयमें आजाती हैं। इसलिये इसका काल अंतर्मुहूर्त ही है । जब ऊपर लिखी सातों प्रकृतियां सर्वथा नष्ट हो जाती हैं तब वह प्रकट होने वाला सन्यग्दर्शन अत्यंत निर्मल होता है । घात करने वाली प्रकृतियों के नष्ट हो जाने से फिर उस सम्यग्दर्शनमें किसी प्रकार दोष नहीं हो सकता । ऐसे निर्मल सम्यग्दर्शन को क्षायिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन क्षायिक सम्यग्दर्शन रूप आत्मा का गुण प्रकट होने पर फिर कभी नष्ट नहीं होता; अनंतानंत काल तक बना रहता है। जिस समय मिथ्यात्व, सम्यन्मिथ्यात्व और अनंतानुसंधी प्रकृतियों का उदयाभावी ( उदय में न आना ) क्षय होता है तथा सत्तावस्थित उन्हीं सर्व घाती छह प्रकृतियों का उपशम होता है और सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व नामकी देशघाती प्रकृति का उदय होता है उस समय वायोपशमिक सम्यग्दर्शन होता है। इसमें देशघाती प्रकृति का उदय होता है । इसलिये यह सम्यग्दर्शन अत्यंत निर्मल नहीं होता। किंतु इसमें चल, मलिन, अंगाढ दोष उत्पन्न होते रहते हैं। तथापि वह छूटता नहीं है। छयासठ सागर तक रहता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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