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________________ जैन-दर्शन २१ ] : वज का मद है । अपनो ऋद्धि व विभूति का अभिमान करना ऋद्धि का अभिमान है। अपने तप का, उपवास आदि का अभिमान करना तप का मद है | अपने शरीर की सुन्दरता का अभिमान करना शरीर का अभिमान है । इस प्रकार ये आठ मद हैं । सम्यग् इनका अभिमान कभी नहीं करता। वह समझता है कि इस संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अनंत चार राज्य पाया, अनंत बार प्रचुर ज्ञान पाया, अनंत बार महा विभूतियां प्राप्त हुई, अनंत या तपश्चरण किया, अनंत वार सुंदर शरीर और अत्यंत वल प्राप्त किया । ऐसी अवस्थाओं में इस तुच्छ विभूति, घल, शरीर आदि का अभिमान करना व्यर्थ और हास्य जनक है । मदोन्मत्त जीव अपने आत्मा का स्वरूप भूल जाता है और फिर संसार में परिभ्रमण करने लगता है । यही समझ कर सम्यग्दृष्टी जीव कभी अभिमान या मद नहीं करता । वह तो अपने आत्मा का वा श्रात्मा के अनुपम गुणों का चितवन करता है और समझता है कि इन श्रात्मीय गुणों के सामने सांसारिक समस्त सामग्री तुच्छ है । सांसारिक सामग्री दुःख देने वाली है और आत्मीय गुण मोक्ष सुख देने वाले हैं । यही विचार कर वह समस्त पदों का त्याग कर देता है और प्रात्मीय गुणों में अनुराग करने लगता है । इस प्रकार इन मदों का त्याग करना सम्यग्दर्शन के आठ गुण हैं । तीन मूढताओं का त्याग - देव मूढता, गुरुमूढता और लोक मूढता ये तीन मूहताएं कहलाती हैं। इन तीनों मूडताओं का त्याग कर देना सम्यग्दर्शन के तीन गुण हैं । "
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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