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________________ - - - - - - - जैन-दर्शन सम्यग्दृष्टी पुरुष उन धर्मात्माओं का यथायोग्य आदर सत्कार करता है। उनके धर्म की प्रशंसा करता है और धर्म के नाते ही उनको श्रेष्ठ मानता है। यह सब सम्यग्दर्शन का सातवां अंग कहलाता है। सम्यग्दर्शनका आठवां अंग प्रभावना है। प्रभावना का अर्थ प्रभाव प्रकट करना है। इस संसार में अनेक प्रकार का अज्ञान रूपी अंधकार फैला हुआ है । उस अज्ञानता के कारण ये जीव अपने श्रात्मा का कल्याण नहीं देखते , अपने स्वार्थ वश होकर इन्द्रियों के विषयों की लोलुपता के कारण उसी अज्ञानता में फंसते चले जा रहे हैं और यहां दुःखों के कारणों को उत्पन्न करते चले जा रहे हैं। ऐसे जीवों की उस अज्ञानता को जिस प्रकार बने उस प्रकार दूर कर उसको यथार्थ धर्म-मार्ग में लगाना प्रभावना अंग है। यह प्रभावना अंग अनेक प्रकार से किया जाता है। यथा-यथार्थ मोक्षमार्ग का उपदेश देकर संसारी जीवों को मोक्षमार्ग में लगाना और उनका मिथ्यामार्ग छुड़ाना। यथार्थ तत्वों का उपदेश देकर उनका श्रद्धान कराना और आतत्त्व श्रद्धान को दूर करना । भगवान् जिनेन्द्र देव के अनुपम गुणों का प्रचार करना, रथोत्सव, पंच कल्याण महोत्सव, पंचामृताभिषेक आदि धार्मिक कार्यों के द्वारा जिन धर्म वा मोक्षमार्ग का प्रभाव प्रकट करना, स्वाध्यायशाला बनवाना, 'देव पूजा आदि श्रावकों के षटोकर्मों का प्रचार करना, जिनालय बनवाना प्रतिमाए वनवाना, उनकी प्रतिष्ठाएँ करना आदि सब प्रभावना के साधन हैं। . ... . . ... ...
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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