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________________ -। [२६६ जैन-दर्शन मिटी से लीपना चाहिये तथा गर्म जल से प्रसूता को स्नान करना चाहिये । उस प्रसूता के वस्त्र शय्या आदि धोत्री से धुलाना चाहिये अथवा शुद्ध जलसे स्वयं धो डालना चाहिये । इसी प्रकार प्रसूता के काम में आये हुए धातुके वर्तनों को अच्छी तरह मांजकर अग्नि से शुद्ध कर लेना चाहिये और मिट्टी के वर्तनों को घर के बाहर फंक देना चाहिये । इस प्रकार की यह शुद्धि प्रयत्न पूर्वक प्रत्येक सात दिन के बाद करनी चाहिये । जब तक उस प्रसूताकी पूर्ण शुद्धि न हो जाय तब तक इसी प्रकार की शुद्धि वरावर करते रहना चाहिये और स्नान करते समय उस प्रसूताको वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये और आचमन भी करना चाहिये । इस प्रकार प्रसूता की यह शुद्धि जिनागम के अनुसार निरूपण की है। श्रावकों को अपनी शुद्धि के लिये स्वयं इसका पालन करना चाहिये और दूसरों से पालन कराना चाहिये । भगवान जिनेन्द्र देवने सातवीं पीढी के लिये स्नान करने यज्ञोपवीत बदलने आदि क्रिया के बाद एक दिनका सूतक माना है । एक दिन के बाद ही उनकी शुद्धि हो जाती है। छठी पीढी के लोगों के लिये पांच दिनका सूतक माना है और पहली दूसरी तीसरी चौथी पीढी के लोगों के लिये पूर्ण सूतक माना है । यह पूर्ण सूतक पिता आदि कुटम्बी लोगों को ही लगता है अन्य किसी को नहीं । यह नियम मरण के सूतक में भी माना जाता है और प्रसूति के सूतक में भी माना जाता है। इसलिये वुद्धिमान लोगों को किया और समस्त विधियों के पूर्वक इस सूतक पातक का अवश्य पालन करना चाहिये।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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