SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - -- -- - - - जैन-दशन मुनियों का शरीर अत्यंत मलिन हो जाता है। गर्मी के दिनों में पसीना आने से और उस पर धूलि मिट्टी जम जाने से उनका शरीर अत्यंत मलिन हो जाता है। ऐसे शरीर को देखकर भी सम्यग्दृष्टि समझता है कि इनका यह शरीर रत्नत्रय से पवित्र हे और इसीलिये यह परम पूज्य है । शरीर पौद्गलिक है । वह स्वयं हड्डी, मांस, रुधिर, मन्जा आदि अत्यंत अपवित्र और मलिन पदार्थों से भरा हुआ है । उस मलिनता के सामने यह ऊपरी मलिनता कुछ भी नहीं है ! यही समझकर वह सम्यग्छष्टी पुरुष उन मुनियों के रत्नत्रय रूप आत्म गुणमें अनुराग रखता है और उस मलिनता से कभी ग्लानि नहीं करता । यही उसका निर्विचिकित्सा अंग है। मुनिराज सर्वथा मोह रहित होते हैं और वे अपने शरीर तक से भी कभी मोह नहीं करते । वे उस अपने शरीर को कभी अपना अर्थात् आत्मा का नहीं समझते किंतु उसे परकीय पौद्गलिक समझते हैं । इसीलिये वे शरीर की मलिनता की ओर ध्यान न देकर केवल आत्मीय गुणोंका चितवन करते हैं। सम्यग्दृष्टी भी उनके इस यथार्थ स्वरूपको समझता है और इसीलिये वह उनके गुणों में अनुराग रखता है उनके मलिन शरीर से कभी ग्लानि नहीं करता। सम्यग्दर्शन का चौथा अंग अमूहदृष्टि है । मूढष्टि न होना अमूह दृष्टि अंग कहलाता है । मृद दृष्टि का अर्थ अज्ञानता पूर्वक श्रद्धान या आचरण करना है । मोक्षमार्ग से विपरीत जितने मार्ग हैं वे सब संसार परिभ्रमण के मार्ग हैं और इसीलिये वे मिथ्या
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy