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________________ जैन दर्शन २४६ । उदय अस्त वा मध्याह्न का होना ही हेतु है । यदि पृथ्वी भ्रमण न 'करती तो स्थिर नक्षत्र के होने पर उदय अस्त कभी नहीं होता । इसलिये सूर्य का उदय अस्त होना ही पृथ्वी-भ्रमण का अविनाभावी' " हेतु है । परन्तु यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि यह हेतु प्रमाण है । यदि कोई यह कहे कि यह अग्नि ठंडी है क्योंकि वह द्रव्य हैं । जो जो द्रव्य होते हैं वे ठंडे होते हैं जैसे जल । अग्नि भी द्रव्य है इसलिये वह भी ठंडी है । जिस प्रकार यह द्रव्यत्व हेतु प्रमाण बाधित है क्योंकि अग्नि प्रत्यक्ष प्रमाण से स्पर्श करने मात्र से गर्म प्रतीत होती है उसी प्रकार सूर्य का उदय अस्त होना भी प्रमाण बाधित हैं। क्योंकि यदि हम नक्षत्र मण्डल को भ्रमण करता हुआ मान लेते हैं तो फिर बिना पृथ्वी के भ्रमण किये भी सूर्य के उदद्य अस्त की प्रतीति अपने आप हो जाती है । इसलिये पृथ्वी के भ्रमण में सूर्य के उदय का होना नियम से साध्य का अविनाभावी सिद्ध नहीं हो सकता । अर्थात् पृथ्वी के भ्रमण से ही सूर्य का उदय अस्त होता है, यह बात नियम पूर्वक नहीं हो सकती । क्योंकि पृथ्वी के स्थिर रहने पर और सूर्य के भ्रमण करने पर भी सूर्य का उदय अस्त नियम पूर्वक होता ही है । इसके सिवाय पृथ्वी के भ्रमण करने का प्रतिवाद पहले विस्तार पूर्वक कर चुके हैं। आगे पृथ्वी के स्थिर रहते हुए सूर्य का उदय अस्त किस प्रकार होता है यही बात दिखलाते हैं ।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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