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________________ - जैन-दर्शन २४७ यदि यह पृथ्वी सब.ओर व्यापक रूपसे रहती है. तो फिर उसके आकार की कोई कल्पना नहीं हो सकती । आगे इसी को स्पष्ट रूप से दिखलाते हैं। संसार में जितने पर्वत है वे सब किसी न किसी आकार के ही दिखाई पड़ते हैं क्योंकि वे सीमित हैं जो पदार्थ सीमित नहीं होता अपर्यन्त वा व्यापक होता है वह किसी भी आकार वाला नहीं हो सकता। जैसे आकाश व्यापक है इसीलिये उसका कोई आकार नहीं है। इस प्रकार विपक्ष से वाधित है और इसीलिये पृथ्वी को सीमित सिद्ध करता है। .. इसी प्रकार तुमने यह जो कहा है कि यह विवादापन्न पृथ्वी - किसी दूसरी पृथ्वी के आधार है क्योंकि वह पृथ्वी है। जो जो पृथ्वी होती है वह किसी न किसी पृथ्वी के आधार रहती है जैसे यह प्रसिद्ध पृथ्वी । सो यह कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि तुम्हारा यह हेतु सूर्य की पृथ्वी से अनेकान्त दोष से दूषित है अर्थात् सूर्य की पृथ्वी.पृथ्वी होने पर भी किसी के आधार नहीं है। इसलिये तुम्हारा पृथ्वी रूप हेतु.अनेकान्त दोष से दूषित है । तुमने यह जो कहा था कि जो जो पृथ्वी होती है वह किसी न किसी के आधार पर रहती है यह बात ठीक नहीं है क्योंकि सूर्य की पृथ्वी पृथ्वी तो है परन्तु वह किसी के आधार पर नहीं है । इसलिये मानना चाहिये कि पृथ्वी भी सीमित है । वह व्यापक नहीं है और इसीलिये वह श्राकारवान है तथा ऊपर नीचे की ओर उसके भिन्न भिन्न आकार हैं और वह अनादि कालीन स्थिर वायु के आधार पर स्थित है। ऐसा बिना किसी बाधा के प्रमाण सिद्ध हो जाता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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