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________________ - - [१४ जैन दर्शन जिस प्रकार शरीर में हाथ पैर आदि अंग होते हैं. उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के ये आठ अंग है । जिस प्रकार शरीर में किसी एक. अग के भी न होने से यह शरीर वेकार हो जाता है उसी प्रकार यदि किमी एक अंगका भी पालन नहो तो वह सन्यदर्शन बेकार या अभाव रूप ही समझा जाता है। , सम्यन्दशन आत्मा का एक अमूर्त गुण है इसलिये ये उसके अंग-भी अमूर्त रूप गुण हैं और । इसीलिये एक अंग के होने से भी यथासंभव सब अंग प्रान हो जाते हैं। तथापि सम्बन्धी इन समस्त अंगों का पालन करता है । . इनमें पहला अंग निःशंकित अग है। निःशक्ति का अर्थ है किसी प्रकार की शंका न करना अपने देव शास्त्र गुरु में अटल श्रद्धान:करना। यद्यपि यहः सम्यग्दर्शन अल्पनानियों को और तिर्यवों को भी होता है और वे अल्पज्ञानी या तिचंच सम्बन्धी : जीव तत्त्वों का स्वरूप पूर्ण रूपसे नहीं समझते तथापि उनको थोड़ा. ही क्यों न हो आत्म-ज्ञान अवश्य होता है और इसीलिये वे भगवान् जिनेन्द्र देवके कहे हुए वचनों पर अटल श्रद्धान रखते हैं। यद्यपि वे सूक्ष्म तत्त्वों का स्वरूप नहीं समम्त तथापि वे यह अवश्य समझते और श्रद्धान रखते हैं कि भगवान जिनेन्द्र देव वीतराग सर्वज्ञ हैं इसलिये वे सूक्ष्म तत्वों का स्वरूप भी मिथ्या रूपसे नहीं कह सकते; वे सदाकाल यथार्थ स्वरूप का ही निरूपण करते हैं । अतएव उन्होंने तत्त्वों का जो स्वरूप कहा है वही यथार्थ है-इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं है। इस प्रकार वह सम्यन्नो जीव भगवान जिनेन्द्र देव की यात्राको मानकर उनके कहे अनुसार ..
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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