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________________ सेन-द राजा श्रम भी तो किसी जाति में ही उपमहाथे। वे प्रभा शाली थे, इसलिये उन्होंने अपनी जाति के लोगों को अपने में प्रवान कहकर पुकारा और इस प्रकार पहली जानि लोप कर उस जातिका नाम बदलकर अग्रवाल नाम रम दि इस प्रकार प्रागन और लौकिक दोनों प्रण नियों के अनुरू समस्त जानियां अनादि हैं. और वर्ण-व्यवस्था भी अनादि है समें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है। जैन धर्म की अनादिता पिछले लेख से यह बतला चुके हैं कि भरत और रावत क्षेत्रों में काल परिवर्तन होता है। इन दोनों क्षेत्रों को छोटकर अन्यत्र कहीं भी काल-परिवर्तन नहीं होना। जहां काल-परिवतंन नहीं होता यहां पर अनादि काल से एकसा काल बना रहता है और वह अनादिकाल से लेकर अनन्तानन्त काल तक सदा समान रूप से वर्तता रहता है। यहां के जीवों की श्रायु, काय, क्रियाएँ श्रादि सय सदा काल एकसी ही रहती हैं. उनमें कभी किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता । भरत ऐरावत क्षेत्रों में जो काल-परिवर्तन होता है, वह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप से होता रहता है । अवसर्पिणी के अनन्तर उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के अनन्तर अवसर्पिणी फिर उत्सर्पिणी और अयसपिणी इस प्रकार सततरूप से काल परिवर्तन होता रहता है। तथा यह परिवर्तन अनादि काल से लेकर अनन्तानन्त काल तक बना रहता है । इससे यह स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जिस प्रकार यह संसार अनादि है
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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