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________________ - - - - - - - - - - - - - - जैन-दर्शन २२३ ] अवसर्पिणी कालके सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा दुःषमा, दुःपमा सुषमा, दुःषमा, और दुःपमा दुःपमा ये छह भेद हैं । सुषमा सुषमा कालमें उत्तम भोग भूमि के समान व्यवस्था होती है। सुषमा काल में मध्यम भोग भूमि के समान व्यवस्था होती है। सुषमा दुःपमा में जघन्य भोगभमि के समान व्यवस्था रहती है । दुःषमा सुषमा कालमें विदेह क्षेत्रों के समान कर्म भूमि की व्यवस्था रहती है। दुःपमा और दुःषमा दुःपमा काल में भी कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। भोगभूमियों में विवाह संबंध और व्यापार करने को श्रावश्यकता नहीं होती । इसलिये वहां पर जाति-व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था व्यवहार रूप से चालू नहीं रहती । जव तीसरे काल के अनन्तर कर्म भूमि का समय आता है तब कुलकर उत्पन्न होते हैं वे कुलकर सर्वमान्य होते हैं और उनको प्रायः अवधि ज्ञान होता है। वे कुलकर ही अपने अधि ज्ञान से जानकर जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था तथा कर्मभूमि की समस्त रचना का उपदेश देकर व्यवस्थित रूपसे की भूमि की रचना करते हैं। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि जिस प्रकार अवसर्पिणी के छह भेद बतलाये हैं उसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी उसके प्रति कूल छह भेद हैं:। अवसर्पिणी के अंतिम दुःषमा दुःषमा काल के अनंतर उत्सर्पिणी का दुःषमा दुःषमा काल आता है उसके अनन्तर दुःषमा और फिर दुपमा सुषमा काल आता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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