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________________ जैन-दृश्न __१८८] वाला हो उसको वर्तमान में कहना द्रव्य निक्षेप है। जैसे पहले जो दीवान था और अब नहीं है, तथापि उसे दीवान कहना द्रव्य निक्षेप है । अथवा जो राजपुत्र राजा होने वाला है उसको पहले से ही राजा कहना द्रव्यनिर है। भावनिपेत-वर्तमान में जो जैसा हो उसको वैसा ही कहना भाव निक्षेप है। जैसे जो राजा है उसको राजा कहना और जो दीवान है उसको दीवान कहना भायनिक्षेप है। इस प्रकार ये चार निक्षेप हैं । इन निक्षेपों के बिना भी संसार का कोई काम नहीं चल सकता । इसलिये इनका सममाना और मानना अत्यावश्यक है। संसार में मूर्ति-पूजा ऐसी उत्कट पुण्य को बढ़ाने वाली मुख्य धर्म की प्रवृत्ति इन्दी निष्पों से हुई है और हो सकती है। इन नियंपों के बिना न तो किसी का नाम रख सकते हैं, न मूर्ति पूजा ऐसा पवित्र और पुपयोत्पादक कार्य कर सकते हैं। और पद छोड़ने पर भी दरोगाजी वा दीवानजी नहीं कह सकते। जैन धर्म अनादि है उसके ये प्रमाण नय निक्षेप श्रादि सब अनादि हैं और इसीलिये मूर्ति-यूजा भी अनादि हैं। ___ सृष्टिकी अनादिता संसार में जितने मूर्त वा अमूर्त पदार्थ हैं उनकी रचना विशेष को सृष्टि कहते हैं । इस संसार में जीव, पुद्गल,धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये छह तत्त्व है । वास्तव में विचार पूर्वक देखा जाय तो ये सक तत्त्व अनादि और अनिधन है। क्योंकि जितने पदार्थ इस
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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