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________________ जैन दर्शन - - - - - DowL जाता है कि सुख दुख जीवन मरण हानि लाभ आदि सब अपने अपने कर्मों के उदय से होता है। यह जीव जैसा करता है वैसे ही उसके कर्म बंधते हैं और फिर उनका फल भी उसको वैसा ही भोगना पडता है । सुख दुख देने वाला वा सृष्टि की रचना करने वालः अन्य कोई नहीं है। जिस प्रकार सोने की खानि की मिट्टी अनादि कालसे सोने से मिली हुई है तथापि तपाने, शुद्ध करने आदि प्रयत्नों के द्वारा उस मिट्टी से सोना अलग हो जाता है। उसी प्रकार यद्यपि ये संसारी जीव अनादि काल से इन कर्मों से बंधे हुए हैं तथापि प्रयत्न करने से तपश्चरण धर्म्यध्यान शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों को नष्ट कर मुक्त वा सिद्ध हो जाते हैं तथा अनंत जीव सिद्ध हो चुके हैं। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि यद्यपि जो जीव मुक्त होते जाते हैं संसारी जीव राशि में से उतने घटते जाते हैं परंतु संसारी जीव राशि अनंतानंत है । जीव राशि कम होने पर भी वह कभी भी समाप्त नहीं होगी। जैन सिद्धत के अनुसार निगोद राशि ( अत्यंत सूक्ष्म निगोदिया जीव ) इस समस्त लोकाकाश में घी से भरे हुए घडे के समान भरी हुई है। यहां तक कि सुई के अग्रभाग पर भी अनंतानंत सूक्ष्म निगोदिया जीय राशि समा जाती है। यह बात सब जानते हैं कि आलू कभी सूखता नहीं है। इसका कारण यही है कि उसमें प्रत्येक समय में अनंतानंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं । सुई के अग्रभाग पर जितना आलू का
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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