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________________ - A-ABMahabhadanatantana जैन-दर्शन समान ऊर्ध्वगमन करता ही है । यह पहले बता चुके हैं कि सीव और पुद्गलों के गमन कराने में धर्मद्रव्य लोकाकाश में व्याप्त होकर भरा हुआ है। यही कारण है कि मुक्त हुया जीव लोकाकाश के अन्त तक जाता है और जिस समय में मुक्त होता है, उसी समय में पहुंच जाता है । यद्यपि उसमें अनन्त शक्ति है उसी समय में वह अनन्तानन्त लोकाकाशों को भी पार कर सकता है, परन्तु धर्म द्रव्य के बिना वह लोकाकाश के आगे नहीं जा सकता, वहीं रुक जाता है और अनन्तानन्त काल तक वहीं रहता है। वह शुद्ध आत्मा अपने शुद्ध आत्मा में ही लीन रहता है । इसलिये वह अनन्त सुखी रहता है। ऐसे शुद्ध मुक्त श्रात्मा को ही सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं। कर्म सिद्धान्त इस संसार में पुद्गल वर्गणाएं अनेक प्रकार की है। कुछ, ऐसी हैं जिनसे श्रौतारिक, बैंक्रिषिक श्राहारक शरीर अनंत हैं, कुछ ऐसी हैं जिनसे अनरात्मक शब्द बनते हैं. कुछ योगा ऐसी हैं जिनरेनन बन्ने हैं, कुछ वश गली हैं हिना तेजस शरीर बनता है और कुछ जानी है बिनने की बनते हैं ! दिन प्रकार वार्ड-कानी निदा से मुक्तिी दुई चली आ रहो है सीन दशक अत काल से कमाने का आरमाक्रीय निरन में
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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