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________________ जेन-दर्शन १७१] । यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि प्रत्येक समयमें अनन्तानन्त वर्गणाएं आती रहती हैं और पिछले कर्मों की अनन्तानन्त वर्गणायें खिरती रहती हैं । कर्मों का उदय प्रत्येक समय में होता रहता है तथा उदय होने पर अपना फल देकर खिर जाते हैं वा नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार प्रात्मा में कर्मों का सत्त्व अनन्तानन्त रूप से हो बना रहता है। जिस प्रकार स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायों से होते हैं उसी प्रकार प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध मन वचन काय के योगों से होते हैं। दस प्रकार अत्यन्त संक्षेप से बन्धतत्त्व का निरूपण किया। संवर तत्व . प्रासक के रुक जाने को संवर कहते हैं । पहले जो आस्रव के कारण बतलाये हैं उनको न होने देने से आस्रव रुक जाता है और आस्रव का रुक जाना ही संवर है। वह संवर गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परिषह जय और चारित्र से होता है। इन सबका स्वरूप पहले कहा जा चुका है, वहां से समझ लेना चाहिये। निर्जरा तत्त्व . ... 'आस्रव के रुक जाने पर जो एक देश कर्मों का क्षय होता रहता है उसको निर्जरा कहते हैं। इसके सविपाक और अविपाक
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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