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________________ जैन-दशेन अब श्रागे पृथक् पृथक् कर्मों के पृथक् पृथक् आस्रव बतलाते हैं। ज्ञानावरण व दर्शनावरणकर्मके प्रास्रव -किसी ज्ञान में दोप लगाना, ज्ञानको छिपा लेना, जानियों से ईर्ष्या करना, किसी पठन-पाठन में विन डालनो, ज्ञानदानका निषेध करना, ज्ञान को अजान वतलाना, मिथ्या उपदेश देना, ज्ञानियों का अपमान करना, अपने ज्ञानका अभिमान करना, सम्यग्दृष्टियों को दोप लगाना आदि ज्ञान दर्शन को घात करने वाले जितने कार्य हैं वे सब ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं। सातावेदनीयक-जीवों पर दया करना, व्रती लोगों पर विशेष दया करना, अनुराग पूर्वक संयम पालन करना, दान देना, क्षमा धारण करना, लोभ का त्यागकर आत्माको पवित्र रखना, अरहंत देवकी पूजा करना, मुनियों की वैयावृत्य करना आदि। असाता वेदनीय के कारण स्वयं दुःखी होना, दूसरों को दुन्व देना, शोक करना कराना, संताप करना कराना, रोना रुलाना, मारना अत्यंत रोना, ताडना करना, धिकार देना बडा आरंभ करना, अनर्थदंड के कार्य करना आदि दुख उत्पन्न करने वाले समस्त कार्य असाता वेदनीय के कारण हैं। दर्शन मोहनाय-केवली भगवान, जिन शास्त्र, मुनि, श्रावकों का संघ, धर्म और देव इनकी निंदा करना, मिथ्या आरोप लगाना आदि सम्यग्दर्शन को घात करने वाले कार्य दर्शन मोहनीय के कारण हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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