SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 160
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होते हैं । अथवा करने से होते हैं और सेवन करने से होने का है। नित्य हो मानना अभी पदार्थ के स्वरूप गुण. अनेक कारण यह है कि प्रस्नत्य हो मानना एका जैन-दर्शन की होती हैं । एक शुभ और दूसरी अशुभ । मन वचन कायकी शुभ क्रियाओं से पुण्य कर्मोंका श्रास्रव होता है और अशुभ क्रियायों से पापरूप कर्मोंका श्रास्रव होता है । पुण्य और पाप प्रायः कपायों से होते हैं, इन्द्रियों के विषय सेवन करने से होते हैं, व्रतों को न पालन करने से होते हैं और अन्य अनेक क्रियाओं से होते हैं । अथवा मिथ्यादर्शन पांच, अविरति बारह, कपाय पञ्चीस, और प्रमाद पन्द्रह, योग पन्द्रह इन सब से आस्रव होता है। इनमें से एकांत, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान ये पांच मिथ्यादर्शन के भेद हैं। किसी भी पदार्थ के स्वरूप को एक धर्म रूप मानना नित्य हो मानना अथवा अनित्य ही मानना एकांत मिथ्यात्व है। इसका भी कारण यह है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म, अनेक गुण, अनेक स्वभाव रहते हैं । इसलिये किसी एक धर्म को मानना यथार्थ नहीं है किंतु मिथ्या है । किसी पदार्थ के स्वरूप को विपरीत मानना विपरीत मिथ्यात्व है, यथा यह नित्य हो है, सष्टि अनादि नहीं है । सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोन मार्ग है अथवा नहीं है इस प्रकार संशय रखना संशय मिथ्यात्व है। समस्त देवों को समान मानना वैनायक मिथ्यात्व है तथा हिताहितका ज्ञान न होना अज्ञान मिथ्यात्व है। पांचों इन्द्रिय और मनको वशन करना तथा पृथ्वी अप तेज वायु वनस्पति और त्रस इन छह प्रकार के जीवों की रक्षा न करना बारह प्रकारको अविरति है। अनंतानुबंधो क्रोध मान माया लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, संचलन
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy