SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [. - - - - जैन-दर्शन पौगलिक पदार्थों को पौगलिक अथवा अपने आत्मा से भिन्न समझकर या परकीय समझकर उनका त्याग कर देता है तथा आत्मा के शुद्ध स्वरूपका श्रद्धान करने लगता है, उसका यथार्थ स्वरूप समझने लगता है और परकीय पदार्थोंका त्याग कर आत्मा में ही लीन होनेका प्रयत्न करता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन प्रकट होने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र भी यथासंभव रूप से प्रकट हो जाते हैं। ऊपर यह बता चुके हैं कि सम्यग्दर्शन के प्रकट होने पर यह आत्मा अपने अत्मा के यथार्थ स्वरूप का श्रद्धान करने लगता है; तथा साथ ही साथ पुद्गल आदि अन्य समस्त पदार्थों को प्रात्मा से भिन्न मानता हुआ उन सबका यथार्थ श्रद्धान करने लगता है । इस प्रकार वह समस्त तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान करने लगता है। इसीलिये आचार्योने सम्यग्दर्शन का लक्षण “समस्त तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान करना" वतलाया है । वास्तव में देखा जाय तो सम्यग्दर्शन का यही अर्थ है । यद्यपि दर्शन शब्द का अर्थ देखना है परंतु मोक्ष मागेका प्रकरण होने से यहां पर दर्शन का अर्थ श्रद्धान लिया जाता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन का अर्थ तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्वान हो जाता है। समस्त तत्त्वों में आत्म तत्त्व ही प्रधान है । आत्म तत्त्व में भी शुद्ध त्मतत्व प्रधान है। क्यों कि शुद्वात्म तत्त्वकी प्राप्ति होना ही मोक्ष की प्राप्ति है। जो श्रात्मा कर्मों को नाश कर अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट कर लेता है वह देव या जिन कहलाता है । इसीलिये
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy