SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - . [४ जैन-दर्शन अात्माका स्वभाव प्रकट हो जाता है । वही यात्माका शुद्ध स्वभाव यथार्थ सुखका था मोलका कारण होता है । ___ कर्मों का स्वरूप इसी ग्रंथ में आगे बतलाया गया है। उनमें एक मोहनीय कर्म है। उसके दो भेद हैं-एक दर्शन मोहनीय और दूसरा चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीच के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति-मिथ्यात्व तथा चारित्र मोहनीय के पच्चीस भेद हैं। उनमें अनन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभ ये चार प्रवल भेद हैं ! उपर यह बतला चुके हैं कि सम्यग्दर्शन अात्माका एक स्वभाव है। वह आत्माका सन्यन्दर्शन रूप स्वभाव मिथ्यात्व, सम्यक्-मिथ्यात्व और सन्यप्रकृतिमिथ्यात्व इन दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों से तथा अनन्तानुवंधी क्रोध मान माया लोभ इन चारित्र मोहनीय की चार प्रकृतियों से ढका हुआ है । जब यह संसारी जीव धर्म से विशेष रुचि रखता है और काल लन्धि आदि निमित्त कारण मिल जाते हैं उस समय इन सातों प्रकृतियों का उपशम हो जाता है। उपशमका अर्थ है, शांत होजाना । जैसे मिट्टी मिले पानो में फिटकरी या कतक द्रव्य बालने से मिट्टी नीचे चैट जाती है और स्वच्छ पानी अपर आजाता है उसी प्रकार जब अपर लिखे सातों को शांत हो जाते हैं अपना फल नहीं देते उस समय उनका उपशम कहलाता है। जिस समय इन सातों को प्रकृतियों का उपशम हो जाता है उसी समय प्रात्मा का वह स्वभाव, जिसको कि ये सातों प्रकृतियां इंक हुए थीं, प्रकट होजाता है । वस श्रात्मा के उसी देदीप्यमान स्वभाव को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy