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________________ - - जैन-दर्शन कलुषता, रति, अरति, स्नेह. वैर आदि समस्त विकारों का त्याग करदेना चाहिये और अमृत रूप श्रुतज्ञान के द्वारा आत्माको पवित्र बनाना चाहिये । उस ममय पंच परमेष्ठी के.गुणों में अपना मन लगाना चाहिये और पंचनमस्कार मंत्रका जप वा स्मरण करना चाहिये । यदि अंत समयमें कंठ रुक गया हो तो पंच नमस्कार मंत्रको सुनना चाहिये ! इस सल्लखना धारण करने में अन्य धार्मिक श्रावकों को भी सहायता देनी चाहिए, ऊंचे शब्दों से पंच नमस्कार मंत्र सुनाना चाहिये । संसार को अस्थिरता दिखलाते हुए ममत्व का त्याग कराना चाहिये और पंच परमेष्ठी का स्मरण कराकर पंच नमस्कार मंत्र में उसका अनुराग बडाना चाहिये। सबसे अच्छा तो यह है कि अन्त समय में किसी मुनि आश्रम में जाकर समाधि मरण धारण करना चाहिये और यदि हो सके तो अन्त समय में मुनिपद ही धारण करना चाहिये। मुनिश्रग में जाने से अन्त समय में मनि वा प्राचार्य भी समाधिमरण में सहायता दे सकते हैं । यदि मुनि श्राश्रमका योग न मिले तो किसी तीर्थ क्षेत्र पर जाकर समाधिमरण धारण करना चाहिये । समाधिभरण धारण कर जीवित रहने की आशा, शीघ्र मर जाने की आशा नहीं करनी चाहिये । मित्रों से अनुराग नहीं रखना चाहिये, जो सुख भोगे हैं उनका अनुभव नहीं करना चाहिये और निदान वा आगामी भोगों की इच्छा नहीं करनी चाहिये । ये सव समाधिमरण के दोष हैं, इनका सर्वथा त्यागकर देना चाहिये। .. ___ यह समाधिमरण तपश्चरण करने का मुख्य फल है। जो श्रावक सम्यग्दृष्टी, होता है आत्मतत्त्वका यथार्थ स्वरूप समझता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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