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________________ - - e [११८ जैन-दर्शन आदिका चितवन करना, किसी का बुरा चितवन करना अपध्यान है। किसी का चुरा चितवन करने से उसका तो बुरा होतानहीं है; उसका बुरा भला होना तो उसके कर्म के उदय के प्राधीन है परंतु बुरा चितवन करने वाले को पाप अवश्य लग जाता है । राग द्वप काम विकार मद साहस आदिको उत्पन्न करनेवाली हृदयको दूपित करने वाली पुस्तकों का पढ़ना सुनना वा सुनाना दुःश्रुति है। ऐसी पुस्तकों के पड़ने सुनने से हृदय में कलुपता उत्पन्न होती है तथा हृदय कलुपित होने से पाप लगता है। बिना किसी प्रयोजन के पृथ्वी खोदना, अग्नि जलाना, वायु करना, पानी ढोलना, वनस्पति तोहना, इधर उधर फिरना प्रमाद चर्या है । इन कामों के करने से व्यर्थ ही पाप लगता है । इस प्रकार ये पांच अनर्थदंड हैं। इनका त्याग करना अनर्थदंड-व्रत है। भंड वचन कहना, शरीर की कुत्सित चेष्टा करना अधिक वकवास करना. विना विवारे कोई काम करना और खाने पीने आदि पदार्थोको अधिक परिमाण में संग्रह करना ये इस व्रतके दोष है। इसमें भी व्यर्थ पाप लगता है इसलिये अनर्थदंड व्रत धारण करने वालोंको इन सवका भी त्याग कर देना चाहिये। इस प्रकार संक्षेप से गुणवतोंका स्वरूप बतलाया। शिक्षात्रत जिन व्रतों से मुनियों की शिक्षा मिले उनको शिक्षाव्रत पाहते हैं। शिक्षाबत चार है:-सामायिक, प्रोपयोपयास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथि-संविभाग! . .
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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