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________________ जैन-दर्शन १-१५ ] से वह श्रावक बच जायगा । पशुओं को अधिक जोतना, दूसरे की संपत्ति को देखकर आश्चयें करना, अधिक लोभ करना, अधिक - सग्रह करना, पशुओं को अधिक दुखी रखना और परिग्रह बढ़ाने की लालसा रखना इस व्रत के दोष हैं । परिग्रह - परिमाणाव्रत 'धारण करने वाले श्रावकों को इन दोषों का भी त्यागकर देना चाहिये । -इस प्रकार ये पांच अत्रत हैं । इनको धारण करने से आत्मा 'के राग द्वेष श्रादि समस्त विकार कम हो जाते हैं तथा वे श्रावक अनेक पापों से बच जाते हैं । सम्यग्दर्शन पूर्वक इन व्रतों की • पालन करने से स्वर्गादिक की अनुपम विभूति प्राप्त होती है तथा परपरा मोक्ष की प्राप्ति होती है । ' 'गुणवत जो अणुत्रतों के गुणों को बढ़ाते रहें जिनके द्वारा हिंसा अणुव्रत वृद्धिको प्राप्त होता रहे उनको गुणव्रत कहते हैं । गुणत्रत तीन हैं । दिव्रत, देशव्रत और अनर्थदडविरतिव्रत । " दिखत-दिग् शब्दका अर्थ दिशा है। दिशा दश हैं - उत्तर, - ऐशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत, पश्चिम, वायव्य, ऊपर नीचे । जन्म भर के लिये इन दशों दिशाओं में आने जाने की मर्यादा नियत कर लेना और फिर उसके बाहर कभी न आना जाना न कभी जाने के लिये विचार करना दिग्नत है। इस व्रतको धारण करने से मर्यादा के बाहर स्थूल सूक्ष्म सब प्रकार के पापों का त्याग हो जाता है । मर्यादा के बाहर समस्त जीवों की हिंसाका
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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