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________________ ८६ ಇಂಾಂಡ್ ३६ यो कौनजन चाहे कहो संसारके दुख भोगना, पर भोगने पड़ते विवश त्रयतापनित धनके बिना। आभूषणोंसे जो मनुज दिखता यहांपर है बड़ा, उसके भवनमें भी विकट दारिद्रयका डेरा पड़ा। ३७ होती न पूरी आज आशा एक भी इस चित्तकी, होती नहीं जनपर कृपा हा ! हा ! कभी भी वित्तकी । भाती नहीं खादी कभी बारीक मलमल चाहिये, पैसा बिना उसके लिये मनमें सदा ललचाइये । ३८ परिवार पोषण भी यहां पर हो रहा अतिभार है, धनके बिना निस्सार जीवन मृत्युमें ही सार है । करके कठिन दिनभर परिश्रम जो यहां पैदा किया, मिलकर उसे दोनों जनोंने प्रेम पूर्वक खा लिया । ३६ निद्रा न आती रातमें कर याद प्रातःकालकी, हा ! स्वप्नमें दिखता उसे दारिद्र्य भीषण पातकी । अपनी दशापर सर्वदा रहते दुखित परिणाम हैं, उन दीन दुखियोंसे कभी होते न धार्मिक काम हैं।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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