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________________ ॐ २१ जैसे हुये जगमें पतित हम दूसरे वैसे नहीं, अवलोक कर ऐसी दशा यह क्यों न फट जाती मही । अब अन्यको जैनी बनाना सर्वथा ही दूर है, निज धर्मका श्रद्धान हमसे हो रहा अति दूर है । २२ जिनके हृदयमें थी यहाँपर एक दिन विस्तीर्णना, उनके हृदयमें पूर्णतः स्थिर हुई संकीर्णता । जिस धर्मके धारक मनुज सबको लगाते थे गले, वे खा रहे हैं ठोकरें हो आज मिट्टीके डले । २३ हा! हा! तनिक सी बातपर मिथ्या वचन भी बोलते, पर कामिनी या द्रव्यपर भी तो यहां मन डोलते । जिस कृत्यको संसारमें हा! नर न कर सकते कभी, निर्भीक हम नित पाशविक दुष्कृत्य कर सकते सभी २४ अज्ञानता प्रिय मूर्खतामें आज कैसे हें पड़े, हा ! खा रहे हैं लात घूसे हो नहीं सकते खड़े । अपने हिताहितका यहाँसे ज्ञान सब जाता रहा, मद मोह मत्सर द्रोह ही अब ठौर पाता है अहा !
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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