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________________ उत्साहसे जिसने अनेकों पूर्वमें भूषण लिखे, दुर्भाग्यही है मुख्य जोइस भांति अबदृषण लिखे। जिसने लिखाथा स्वर्गपहिले नर्कको लिखने चली, जिसने लिखाथा दीर्घ-सर वह गर्तको लिखने चली। आधुनिक जैनी। है हर्ष इतना ही हमें कुछ आज है जीवन यहाँ, पर शोक होता है प्रचुर उसमें न जैनीपन यहां । जीवन विना मानव जगतमें है न कोई कामका, जैनत्व बिन जैनी कहाना रह गया बस नामका । यों तो कहानेके लिये हम आज घारह लाख हैं, सच्चे न बारह भी मिलेगें,बससमझ लोराख हैं। कहते यही सब लोग सुखसे देखकर व्यवहारको, क्या जैनियोंने ही समुन्नत था किया संसारको? पर उन्नतीका एक भी दिखता न उनमें चिन्ह है, निज धर्मसे तो सर्वथा व्यवहार उनका भिन्न है। यदि पूर्वके आदर्श भी ऐसे रहे होंगे कहीं, तो जैनियोंने विश्वकी उन्नति न की होगी कहीं।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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