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________________ ८० ५ यह मनुज चाहे मरे सबको पड़ी है निज स्वार्थ की, कोलों हुई है दूर हमसे बात अब परमार्थ की । प्रभु आपही बतलाइये, हम दुःख कथा किससे कहें, बालक पिताको छोड़कर मनकी व्यथा किससे कहें ? ६ 44 क्यों आपने कोमलहृदयको कर लियाअनिशचकड़ा ? हे देव! किस दुर्भाग्य से ऐसा समय लखना पड़ा । करते परिश्रम रातदिन मिलतान शुभ परिणाम है. हा ! हो रही भीषण अधोगति नाम है नहिं धाम है । ७ जब बढ़ रहे सब लोग जगमें तब हमारा ह्रास है, हमको न अपने बन्धुओंका ही रहा विश्वास है । मृदुना, सरलता, सत्यता, मैत्री, सुशान्ति थी जहां, देखो कुटिलता, नीचना, भीषण अशान्ति है वहां । ܟ जो जो पढ़ाया था हमें वह आज सब विमरादिया, आदेश अनुपम आपका सर्वेश ! हा ! ठुकरा दिया | जिस मार्गपर पहिले चलाया हमनअब उसपर चले, चरितार्थ तथ कहत हुई हम मूर्खनरसे पशुमले ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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