SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .00 जिनको विलोके शीघ्र ही सन्ताप होता दूर है, आता हगोंमें भक्तिसे हर्षाश्रुओंका पूर है । श्रीवाहुबलिसी दीर्घ प्रतिमा है न जगमें दूसरी, प्राचीनताके साथ जो पतला रही कारीगरी । मृदु भव्यताके साथ रचना दीर्घ दुष्कर काम था, वह तो हमारे घोर श्रम या भक्तिका परिणाम था। देव-मन्दिरमें स्त्रियां। नूपुर मधुर झंकार करतीं सीढ़ियां चढ़ने लगी, वे मन्द स्वरमें भक्तिसे प्रभु-संस्तवन पढ़ने लगी। मानों प्रभू पूजार्थ भूपर आ गई सुरनारियां, साक्षात् किन्नर नारियां, श्री ही सकल सुकुमारियां सद्य लेके भक्तिसे की ईशकी अर्चा वहाँ, पश्चात् विद्वत्ता भरी की धर्मकी चर्चा वहाँ । पतिको प्रथम भोजन करा करके पुनः भोजन किया, भोजन करानेसे प्रथम कुछ दान पहले कर दिया। बालक। वयसे अहो ! बालक रहे पर ज्ञानसे बालकन थे, निज धर्मके पालक रहे पर-धर्मके पालक न थे।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy