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________________ भिक्षुक सदनके द्वारसे यों रिक्त जाता था नहीं, पातान था यदि द्रव्य तो आहार पाता था सही। विश्व सेवा। । की विश्व-सेवा किन्तु इच्छाकी न प्रत्युपकारकी, सबका सदा कहना रहा सेवा करो संसारकी । इस विश्वसेवामें सतत खर्गीय-सुख आनन्द है, सत्कार्य करनेके लिये संसार भर स्वच्छन्द है। संसार-सेवासे सदा होता अधिक शीतल हिया, करके सुसेवा लोककी शशिने बदन उज्वलकिया। सेवा करोगे विश्वकी मेवा मिलेगी आपको, जो दूर कर देगी सहजही चित्तके सन्तापको। वीर शासनका वीर मंत्र। श्रीवीर शासनके अलौकिक बोध-प्रद सदमंत्रसे, सक्षम हम आते रहे यमराजके भी दन्तसे। उसकी प्रखरतर ज्योतिसे पर्दा हटा अज्ञानका, मगटिन हुआ सपके हृदयमें सूर्य सम्यग्ज्ञानका । है मंत्र शासनका यही, मत सत्यकी हत्या करो, अपना हदय पावन कभी मत दुट भावोंसे भरो। ५साली।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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