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________________ १४ शक्तिका उपयोग। बल था हमारा दुर्बलोंकी दुख रक्षाके लिये, धन था हमारा दीन जनको दान देनेके लिये। करना अनुग्रह भूलते थे हम न जीवों पर कभी, सत्कार्य हित करते रहे तन,मन हमी अर्पण सभी। उन्मार्ग पोषणके लिये वक्तृत्व शक्ति थी नहीं, उपकार करनेके लिये प्रभुकी न भक्ति की कहीं। जिस भांति हमको भूल करके निज अनिष्टन इष्टथा, घस! आत्मवत् सिद्धान्त था देतान कोई कष्टथा। हमारा सुख। अवलोक करके सुख हमारा देव ललचाते रहे, निज कार्य-पढ़तासे जगतके सौख्य हम पाते रहे। सय वस्तुयें मिलती रही,सुख-शान्तिपूर्ण सुभिक्षथा, उसखर्गका ही दृश्य तो दिग्डता यहाँ प्रत्यक्ष था। ग्रामीण जीवन। था कौनसा हमको न मुग्व पहले यहांपर ग्राममें, निश्चिन्न निन आगमसे मोते न थे क्या धाममें? बोया यहां जितना अहो! उमसे अधिक पैदा हुआ योग्यसे व्याकुल कभी हां.पैलतक मीनदिमुआ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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