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________________ PORN जिसको दिया आश्रय प्रथम वे अन्त तक देते रहे, अपने मनुजके तुल्य ही सुधि-बुधिमुदित लेते रहे। होने न पावे कष्ट कुछ इसका बड़ा ही ध्यान था, निज आश्रितोंके भी लिये उनके हृदय में मान था। भगते हुओंपर भूल करके वार वे करते न थे, वीरत्वके अभिमानमें पर-सम्पदा हरते न थे। सम्पूर्ण पृथिवीपर सदानिशंक निज शासन किया, दी सम्पदा नित रंकको विद्वानको आसन दिया। सुखशान्तिपूर्वक नीतिसे जीवन बिताते थे यहाँ, तिर्यश्च तक भी कष्ट किंचित् तोन पाते थे यहां। सर्वत्र समता राज्य था, अघ,भय, अनय सब दूर थे, यम, नियम द्वारा हाँ सभी दुष्कर्म करते दूर थे। आचार्य। आचार्य कैसे थे हमारे ध्यानसे सुन लीजिये, फिर पूज्य पुरुषों का सदा गुणगान सादर कीजिये। थी एक दिन शोभित मही आचार्य नेमीचन्द्रसे, सिद्धान्तके ज्ञाता विकट आचार्य अमृतचन्द्रसे। उनकी तपस्या सदा आश्चर्यकारी शक्ति थी, इहलोक विषयों में कभी उनकी नहीं आशक्ति थी।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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