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________________ Creo वह ही दुखित इसचित्तको देती अधिकतर शांति है, होते प्रगट भगवान मनमें दूर होती भ्रान्ति है। वीर-पुरुष। निज शक्तिसे संसारपर अधिकार जो करते रहे, अवलोक जिनकी वक्र भ्रकुटी शत्रु सवडरतेरहे। ललकारसे मानी नपति होते रहे वशमें सभी, लेना न पड़ती थी उन्हें तलवार भी करमें कभी । उनके मनोहर चक्षओंमें तेज इतना था भरा, अभिमानसे ऊंचा न करता था कभी सिर दूसरा। वन-केहरीसे सैकड़ों मृग भाग जाते हैं यथा, ओह ! अद्भुत वीरसे सब शन्नु डरते थे तथा । संसारमें वे वीरवर यमराजले डरते न थे, निज शक्तिका वेस्वप्नमें अभिमानपर करतेन थे। लाखों भटोंकाथा अहो! बल एक अनुपमवीरमें, होते नथे व्याकुल कभी भी वीर अतिशय पीरमें। थे कोटि-भट श्रीपालसे इस रम्य धरणीपर अहो! जो तिरगये निज शक्तिसे भीषण-दुखद सागर अहो करना करीन्द्रोंको स्ववश यह तोसदाका खेल था, करके कठिन सग्राम भी उनके न मनमें मैल था।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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