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________________ भगवानकी अनुपस्थितिमें वे हमें भगवान् थे, उनके मननसेही थने हम एक दिन विद्वान थे। सब प्राणियोंका नेत्र अद्भुत शास्त्र कहलाता सही, सम्पूर्ण घातों को सतत प्रत्यक्ष बतलाता वहीं । छोटे हमारे सूत्र हैं भावार्थ अतिशय ही भरा, यों कर न सकता अर्थ जिसका स्वप्नमें भी दूसरा। तत्वार्थ सूत्र विलोक लीजे भाष्य हैं उसपर बड़े, अधुनान मिलते पूर्ण हा ! हा!! बंदतालोंमें पड़े। तत्वार्थ रच आचार्यने उपकार जगका कर दिया, निज दक्षतासे ही सहज घट मध्य सागर भरदिया। निज-धर्मके सिद्धान्त यो संक्षेपमें सब आ गये,. धनते रहे जिसपर यहाँपर शास्त्र नित्य नये नये। न्याय। 'गंधहस्ति' जैसे भाष्य निज सत्ता यहाँ रखते रहे, जिससे सदा हम जीव पुद्गल भेदकोलखतेरहे । श्रीश्लोकवार्तिक ग्रन्थकी किससे छिपीप्राचीनता ? क्या न्यायकुमुदोदय तथा मार्तडकीविस्तीर्णता? १ गंधहस्ति महाभाष्य । २ प्रमेय-कमल-मार्तण्ड।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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