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________________ सन्तानको जो प्रेम वश विद्या पढ़ाते है नहीं। यह ध्यान में रखकर हमी विद्या पढ़ाले थे यहां, हमसे प्रबल विद्वान थे इस विश्वमें बोलो कहां। विद्या हमारी थी सभीको बोध देने के लिये, इससे सतत उपकार हमने विश्वके कितने किये। पढ़कर इसे आजीविकाका लक्ष्य रखते थे नहीं, आशा भरी मृदु दृष्टिसे परमुख न लखते थे कहीं गुरु१ भूल भी बतला सकें इतना यहांपर ज्ञान था, छह मासतक शास्त्रार्थकर किसने बढ़ाया मान था? भगवान तककी भी उपाधि विश्वमें नित प्राप्त थी, 'जिह्वाग्रमें यह शारदा रहती सदा ही व्याप्त थी। श्रुतज्ञान। है ज्ञात इस संसारको कैसे प्रथम ज्ञानी हुये, हम एकसे बढ़कर यहांपर नित्य विज्ञानी हुये। श्रत केवली सम्पूर्ण विद्या पारगामी थे यहां, सबोध जो करुणासदन सर्वत्र देते थे यहां। १ अकलंक खामीने विद्यार्थी अवस्था बौद्ध-गुरुकी पुस्तक ठीक की थी।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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