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________________ Namo अपने पिताके हेत देखो भीष्म ने त्यागा सभी, क्या दूसरा दुःसाध्य ऐसा कार्यकर सकता कभी ? उनसा न कोई ब्रह्मचारी आज आता दृष्टिमें, यह देह तो नश्वर सदा गुण गूंजते हैं सृष्टिमें। सुनकर इनके शरीरमें भागसी लग गई, ये तत्कालही उसे मारनेको प्रस्तुत हुये, किन्तु गुरुने ऐसा करनेसे रोका। तुम अभी बालक हो तुम्हारे पास साधन नहीं हैं जिससे कि तुम उससे अभी युद्ध करो। धैर्य रखो! एक वर्ष बाद तुम उससे अवश्य राज्य लेनेमे समर्थ होगे। कुमार घर आ गये स्वयम्वरमे इन्होंने गंधर्गदत्ताको जीत लिया, लुटेरोंको वशमे किया, तथा एक दिन काष्ठागारका हाथी छट गया था उसको वशमें किया । इन सब कार्योंने काष्ठांगारकी क्रोधानलमें घीका काम दिया। उसने कुमारको पकड़ बुलाया। शूलीपर रखनेकी आज्ञा दी, शूलीपरसे एक देव उठा ले गया। पश्चात् कुमार भ्रमण करते करते एक सघन वनमें आये। थकावट दूर करनेके लिये एक वृक्षके तले बैठ गये। वहींका एक विद्याधर दम्पति ठहरा हुआ था विद्याधर पानी लेने गया कि विद्याधरी इनके पास आके प्रेमकी प्रार्थना करने लगी। कुमारने कहा कि तू मेरी बहिन समान है। इनका विशेप हाल जाननेके लिये क्षत्रचूडामणि या जोगंधर चम्पू देखना चाहिये। भीष्म-प्रतिज्ञा जग जाहिर है, अपने पिताके लिये ये आजन्म ग्रामचारी रहे थे।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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