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________________ २०३ 00000 हे नाथ! कहते हैं सभी ही धर्मकी प्रतिमा तुम्हें, हम सोचते मिलती नहीं जो आज दें उपमा तुम्हें। है, है, दयासिन्धो, कठिन हम यातना पाते यहाँ, उद्धार करनेके लिये स्वामी न क्यों आते यहाँ ? श्रीशान्तिनाथ। हे शान्तिनाथ,जिनेन्द्र तव अन्तःकरणमें शांतिथी, परपौद्गलिक इस देहमें भी तोअलौकिक कांतिथी। होते न थे दृगतृस जनके रूपको अवलोकके, प्रभु आपसे सुन्दर कहां थे सुर अहो । सुरलोकके । सबत्याग दीनी-सम्पदा फिर भी अतुल ऐश्वर्यथा, अवलोक करके दृश्य यह सबको बड़ा आश्चर्य था। त्रिपुरेश ! तुमतो बाह्य-अभ्यन्तर विभूतीयुक्त थे, आश्चर्य होता था यही तुम वस्नसे भी मुक्त थे। श्रीकुन्थुनाथ। हो! चक्रवर्ती आपने निर्भीक निज शासन किया, निज पुत्र सम सारी प्रजाको प्रेमसे पालन किया। नश्वर समझ कर राज्य वैभव प्रेमसे तुमने तजा, प्रस्तुत हुये उत्साहसे तब कर्मको देने सजा ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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