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________________ है ठीक ऐसी ही दशा संसारमें उत्थानकी, प्रत्यक्षमें अवलोकते कितनी दशाएं भानुकी ? हे लेखनी ! लिख दे प्रथम कैसे सुखी थे हम सभी, अवनतहुये संप्रति अधिक, अवशेष अवनति और भी जैनधर्मकी श्रेष्ठता । my 00000000 अनेकांत | संसारसे जिस धर्मने एकान्त बाद हटा दिया, है वस्तुनित्य- अनित्य यह जगको प्रगट बतला दिया अज्ञान होता दूर सब इस धर्मके ही नादसे, जीवित सदासे धर्म यह संसार में स्याद्वाद से | बहु धर्मवाली वस्तु जिससे काम हो वह मुख्य है, हम जैनियोंका तो सदा स्वाद्वाद सुन्दर तत्त्व है । बस, एक मानवमें सदा पुत्रत्व है, पितृत्व है, जिस काल जिससे काम हो रखता वही प्रमुखत्व है ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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