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________________ १७३ HEAL भक्ति। हैं दूर ही तो आज हम अपने सदाके कृत्यसे, हम कौनसा सत्कर्म करते हैं जगतमें चित्तसे । प्रत्येक नरकी आजकल दुर्लक्ष्यमें अनुरक्ति है, निज ध्येयप्रति श्रद्धा नहींप्रभुमें कहाँ सद्भक्ति है? ३५६ पढ़ते सदा ही जोरसे हम तो प्रभुके संस्वतन, फिर भी नहीं विध्वंस होता है हमारा भवविपिन । सिरके पटकनेसे कभी होता नहीं कल्याण है, सद्भक्ति भावों से सदा होता प्रगट भगवान है । देखा जगत्पति मूर्तिको उपदेश भी बहुधा सुना, क्या कार्यवह उपदेश करताभक्ति भावोंके विना। भावों बिना होती नहीं है फलवती जगमें क्रिया, प्रभुभक्ति भी तोबन रही है अब दिखाक्टकी क्रिया। १ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि । नूनं न चेतसि मयाविधृतोसि भक्या ।। जातोऽस्मितेन जगवांधव । दुःखपात्र । यस्मानिन्याः पतिफलंति न भावशून्याः॥ -श्रीसूरिसिद्धसेन दिवाकर । ॐ वर्तमान खण्ड समास १६१ - --
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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