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________________ १६६ Bagrane ३४२ पत्नी पतिके भावो भी जो समझ सकते नहीं, निर्दोष के बालक वधू युत देख लीजेगा यहीं । अल्पायुमें ही लोकसे अति रूग्ण हो होते विदा, आजन्म उनके नामको रोती रहे नारी तदा । वृद्ध-विवाह | । सब हो गये हैं केश काले शुभ्र सुन्दर तूलसे, पाणिग्रहणका नाम सुन वे वृद्ध फूलें फूलसे । बहु वीर्यवर्द्धक औषधि खाकर बनेंगे पुष्ट हा, सम्पत्तिके ही जोरपर पूरा करेंगे इष्ट हा । ३४४ सुकुमार कोमल बालिका अति यातना पावे कड़ी, पर वृद्ध पुरुषोको सदा ही निज प्रयोजनकी पड़ी। रहते हुये भी नातियों के व्याह के अपना करें, संशय रहित a नीच नित भण्डार पापों से भरें। ३४५ कहते हुए आती न लज्जा तन हुआ बूढ़ा सही, ar भांति कोमल चित्त अबतक तो हुआ बूढ़ा नहीं। हा छीन लेते द्रव्यके बलपर युवक अधिकारको, बतला रहे हैं सूर्खता अपनी सकल संसारको ।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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