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________________ १४५ Poon हा! तोड़ते लुच्चे लफंगे देव-प्रतिमायें यहां, अवलोक करके दृश्य भीषण भीरूता छोड़ी कहां। इसका नमूना देखिये बहु दूर तो कुड़ची नहीं, जाने हमारा भार कैसे मह रही है यह मही ? २५१ होता हमारे उत्सवों पर घोर पत्थरपात है, क्या वह सहारनपुर-कहानी आपको अज्ञात है ? नर-राक्षसोंने गेहिनीका शील धन कैसे हरा, अङ्कित रहेगी चित्तमें घटना हुई जो गोधरा । रोकी गई रथ-यात्रायें विश्वमें किसकी कहो, . उत्तर मिलेगा सर्वदा इन जैनियोंकी ही अहो । सम्मुख बयाना कांड है हा! और शिवहारा यहाँ, अपमान जैनों का जगतमें आज होता है महा। २५३ चुपचाप बैठे देख लो खाकर तमाचा गालपर, हँसते जगतके लोग इस आश्चर्यकारी हालपर । हमने अहिंसा शब्दका अब अर्थ कायरपन किया, अपना हमींसे तो कभी जाता नहीं रक्षण किया।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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