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________________ १४२ anmaan 00000 २३८ सिद्धान्तके जो गूढ़ भावोंको जरा समझा नहीं, अपने निराले पंथकी कर डालता रचना वहीं। कितनों विभागोंमें अहो ! यह धर्म दिन २ वट रहा, अतएव इसका वास्तविक भी रूप इससे हट रहा। २३६ प्यारा अहिंसा धर्म तो है आज ग्रन्थोंमें यहां, अपना लिखाना चाहते हैं नाम सन्तों में यहां। वह सार्च भौमिकता कहांपर छिप रही है धर्मकी, करता रहा जगभर प्रशंसा धर्मके सत्कर्मकी। २४० उत्तम क्षमा, मार्दव, प्रभृति तो आजकल दुष्कर्म हैं, मिथ्या वचन, परिवाद, हिंसा नित्यके सद्धर्म हैं। दुष्कृत्य बढ़ते जा रहे सद्धर्मके ही रूपमें, क्या लीन हो जाता नहीं पाषाण निर्मल कूपमें ? २४१ अन्याय पक्षोंको अहो ! धर्मान्धतावश खींचते, होते हुए भी नेत्र दोनों आज उनको मींचते । कैसी मची भीषण कलह सर्वत्र प्रभु सन्तानमें, हम मौन हैं संसारमें निज धर्मके अपमानमें।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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