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________________ २०८ पाखंडियोंको भूपसम सामान सारा चाहिये, भगवान-प्रतिमा सामने तकिया सहारा चाहिये। पूजें कुदेवोंको अहो, निज मार्गमें श्रद्धा नहीं, ऐसे कुगुरुओंसे जगतका क्याभला होगा कहीं ? सग्रन्थ ये पापी बड़े निर्ग्रन्थसे पुजते यहां, हा! स्वार्थ साधनके लिये सवढौंग भी रचते यहां। परनारियोंके हाथको लेते अहो ! निज हाथमें, अवकाश पा कर बैठते अन्याय उनके साथी । २१० मुनि धर्मका भी स्वांग धरना प्रेमसे आता इन्हें, उल्लू बनाना श्रावकों को भी सदा आता इन्हें । निज यंत्र मन्त्रोंसे डराना दूसरों को जानते, हा ! धर्मकेही नामपर ये पाप कितना ठानते। २११ हैं भक्त इनके आज भी बागड़ तथा गुजरातमें, कर पैठते प्रभुकी अवज्ञा आ इन्हींकी वातमें। हे आवको! होते हुए हग तुम-नहीं अन्धे धनो, आके किसीकी यातमें अघ-पक्ष में मत तुम सनो।
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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