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________________ 000 हाय, असमयमें यहां जीवन सदैव समाप्त है। चश्मा बिना हम पासकी भी वस्तु लख सकते नहीं, आधार बिन दशपांच पग स्वयमेव चल सकते नहीं। १६३ देखो जवानीमें यहां कैसा वुढ़ापा आ गया, अब तो हगों के सामने कैसा अंधेरा छा गया । सर्वांगमें निशिदिन यहां होती भयंकर वेदना, . जो दुःख हों थोड़े सभी ही एक शक्तिके बिना। व्यायाम शालायें। व्यायामशालायें अहो, अस्तित्व निज रखती यहां व्यायाम करनेके लिये घर कौन जाता है वहां । आरोग्य रहना सर्वदा यह बालकों का कर्म है, व्यायाम करनेमें गृहस्थों को बड़ी ही शर्म है। १६५ सामान ले दो पांव भी चलना कठिनतर हो गया, यों जग रही है क्लीवता१बल वीर्य सारासो गया। जव लाजमें आके सकल व्यायाम हमने तज दिया, तब देखकर अवकाश मनमें भीरताने घर किया। १ -१ नपुंसकता। - --
SR No.010211
Book TitleJain Bharati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunbhadra Jain
PublisherJinwani Pracharak Karyalaya Kolkatta
Publication Year1935
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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